Natasha

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राजा की रानी

इस बार उनके उच्छ्वायस में मुझे बाधा देना पड़ी। कहा, “बड़े गुसाईं, विद्युत का दीपक ही आप लोगों की ऑंखों ने देखा है, पर जिनके कर्ण-रन्धरों में उसकी कड़कड़ ध्वीनि दिन-रात पहुँचती रहती है, उनसे तो जरा पूछिए। आनन्दमयी के सम्बन्ध में कम-से-कम रतन की राय...”


रतन पीछे खड़ा था, भाग गया।

राजलक्ष्मी ने कहा, “इनकी बातें तुम न सुनो गुसाईं, मुझसे ये दिन-रात ईष्या करते हैं।” फिर मेरी ओर देखकर कहा, “इस बार जब आऊँगी तो इस रोगी और अरसिक आदमी को कमरे में ताला लगाकर बन्द कर आऊँगी, इसके मारे मुझे कहीं चैन नहीं मिलती!”

बड़े गुसाईं ने कहा, “नहीं आनन्दमयी, नहीं बनेगा, छोड़कर नहीं आ सकोगी।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “अवश्य आ सकूँगी। बीच-बीच में मेरी ऐसी इच्छा होती है गुसाईं, कि मैं जल्दी मर जाऊँ।”

बड़े गुसाईं जी बोले, “यह इच्छा तो वृन्दावन में एक दिन उनके मुँह से भी निकली थी बहिन, पर वैसा हो नहीं सका। हाँ आनन्दमयी, तुम्हें क्या वह बात याद नहीं?-

सखी, दे जाउँ मैं किसको कन्हैयालाल की सेवा।

वे जानें क्या बताओ तो...”

कहते-कहते वे मानो अन्यमनस्क हो गये। बोले, 'सच्चे प्रेम के बारे में हम लोग कितना-सा जानते हैं? केवल छलना में अपने को भुलाये रखते हैं। पर तुम जान सकी हो बहिन, इसीलिए कहता हूँ कि तुम जिस दिन यह प्रेम श्रीकृष्ण को अर्पण कर दोगी, आनन्दमयी...”

सुनकर राजलक्ष्मी मानो सिहर उठी, व्यस्त होकर बाधा देते हुए बोली, “ऐसा आशीर्वाद मत दो गुसाईं, मेरे भाग्य में ऐसा न घटे। बल्कि यह आशीर्वाद दो कि इसी तरह हँसते-खेलते इनके समक्ष ही एक दिन मर जाऊँ।”

कमललता ने बात सँभालते हुए कहा, “बड़े गुसाईं तुम्हारे प्रेम की बात ही कर रहे हैं राजू, और कुछ नहीं।”

मैंने भी समझ लिया कि अन्य भावों के भावुक द्वारिकादास की विचार-धारा सहसा एक और पथ पर चली गयी थी, बस।

राजलक्ष्मी ने शुष्क मुँह से कहा, “एक तो यह शरीर और फिर एक न एक रोग साथ लगा ही रहता है- एकांगी आदमी, किसी की बात सुनना नहीं चाहते-मैं रात-दिन किस तरह डरी-सहमी रहती हूँ दीदी, किसे बताऊँ?”

अब तो मैं मन-ही-मन उद्विग्न हो उठा। जाते वक्त बातों-ही-बातों में कहाँ का पानी कहाँ पहुँच गया, इसका ठिकाना ही नहीं। मैं जानता हूँ कि मुझे अवहेलना के साथ बिदा करने की मर्मान्तक आत्मग्लानि लेकर ही इस बार राजलक्ष्मी काशी से आई है और सर्व प्रकार के हास-परिहास के अन्तराल में न जाने किस अनजान कठिन दण्ड की आशंका उसके मन में बनी रहती है जो किसी तरह मिटना ही नहीं चाहती। इसी को शान्त करने के अभिप्राय से मैं हँसकर बोला, “लोगों के आगे मेरे दुबले-पुतले शरीर की तुम चाहे जितनी निन्दा क्यों न करो लक्ष्मी, पर इस शरीर का विनाश नहीं है। तुम्हारे पहले मरे बिना मैं मरने का नहीं, यह निश्चित है।”

उसने बात खत्म भी न करने दी, धप से मेरा हाथ पकड़कर कहा, “तब इन सबके सामने मुझे छूकर तीन बार कसम खाओ। कहो कि यह बात कभी झूठ न होगी!” कहते-कहते उद्गत ऑंसू उसकी दोनों ऑंखों से बह पड़े।

सबके-सब अवाक् हो रहे। लज्जा के मारे उसने मेरा हाथ जल्दी-से छोड़ दिया और जबरदस्ती हँसकर कहा, “इस जलमुँहे ज्योतिषी ने झूठमूठ ही मुझे इतना डरा दिया कि...”

यह बात भी वह खत्म न कर सकी, और चेहरे की हँसी तथा लज्जा की बाधा के होते हुए भी उसकी ऑंखों से ऑंसुओं की बूँदें दोनों गालों पर ढुलक पड़ीं।

एक बार फिर सबसे एक-एक करके विदा ली गयी। बड़े गुसाईं ने वचन दिया कि इस बार कलकत्ते जाने पर वह हमारे यहाँ भी पधारेंगे और पद्मा ने कभी शहर नहीं देखा है, इसलिए वे भी साथ में आयेगी।

स्टेशन पर पहुँचते ही सबसे पहले वही 'जुलमुँहा' ज्योतिषी नजर आया। प्लेटफार्म पर कम्बल बिछाकर बड़ी शान से बैठा है और उसके आसपास काफी लोग जमा हो गये हैं।

पूछा, “यह भी साथ चलेगा क्या?”

राजलक्ष्मी ने दूसरी ओर देखकर अपनी सलज्ज हँसी छिपा ली। पर सिर हिलाकर बताया कि “हाँ, जायेगा।”

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